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    नेताजी सुभाष चन्द्र बोस  

 

      कल्पना देवी आत्रेय, कलियाबर, असम ।

  

   पराशर  स्मृति में वेद व्यास के पिता पराशर मुनि ने कहा है कि -- "क्षत्रिय हि प्रजा रक्षन् शस्त्रपाणि: पदण्डयन।

   निर्जत्य परसैन्यादि क्षितिं धर्मेण पालयेत् ।।''

 अर्थात शूरवीर पराक्रमी (क्षत्रिय) का धर्म हैं कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे।इसीलिए उसे शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए "हिंसा"करनी ही पड़ती हैं ।अतः शत्रु की सैनिकों को जितना है तो हाथ में शस्त्र लेकर उन्हें दण्ड देना ही पड़ेगा, अहिंसा से काम नहीं चलेगा ।तभी  धर्मपूर्वक संसार पर प्रजा का प्रतिपालन हो पायेगा । श्री कृष्ण ने अर्जुन को अहिंसक बनने की प्रवृत्ति की भत्सर्ना की, इसे अज्ञान व कायर कहकर अहिंसक बनना मूर्खो का काम है तक कह दिया । अपना हक माँगने की कर्तव्य की उपेक्षा करने का "पाप" लगेगा, अपने धर्म को, यस को सदा सदा के लिए खोकर अपयश तथा दुख दायी उपहास कहलाओगे ...कहते हुवे बड़े बड़े धर्मात्माओं पर अस्र-शस्त्र उठा लेने के लिए गीता में कहा है तो वे भौतिक वादी अंग्रेज केवल भोग-विलास की अभिलाषा हेतु सनातन संस्कृति परम्परा को ध्वस्त करने आये पर अहिंसक नीति से ही हमे स्वतन्त्रता मिलती यह न भूतो न भविष्यति। क्रूर,धूर्त और चालाक ब्रिटिश शासक हमें "इन्डियन डग" कहने वाले क्या सत्ता विरासत में छोड़ जाते? यदि सुभाष चन्द्र बोस रूपी महा योद्धा हमे न मिलता तो आज हिन्द फौज के देशभक्त सिपाही न मिलता, और छब्बीस हजार शहीदों के बलिदान मातृभूमि के लिए न होता तो हमें कुचल दिये होते....... "जालियांवाला वाग" काण्ड की तरह। काग्रेस से गये सुभाष बाबू के नेतृत्व से भयभीत होकर ही हमें आजादी मिली थी यह बातें सर्वविदित होते हुवे भी सार्वजनिक न होना और इसे उस समय में सरकारी मान्यता प्राप्त न होना एक सत्ताधारी षडयंत्र ही था।सिर्फ अहिंसा से सत्ता परिवर्तन हुआ है ऐसा मानना त्रुटिपूर्ण एकपक्षीय मतामत था। गांधीजी का आन्दोलन से अंग्रेजो को जो भय था उसे कोई गुणा सुभाष चन्द्र बोस जी के खतरनाक रवैये  से नींद हराम होकर भागे थे गोरे।परन्तु आजादी के सत्तर साल बीतने पर भी हकीकत को सामने लाने के लिए उत्साह नहीं है कुछ लोगों में । जो मान्यता गांधी जी को हमने दिया वह उससे बड़कर पाने का हकदार होते हुए भी नेता सुभाष चन्द्र बोस को हमने बराबरी   का दर्जा भी नहीं दिया।

   23जनवरी 1897 में  कटक में जन्मे सुभाष चन्द्र बोस भारत के भाग्य विधाता है । "रायबाहादुर" तथा उस समय के सफल वकील जानकीनाथ बोस उनके पिता थे, माता प्रभावती देवी थी।सुभाष आठ भाई और छ बहनों के बीच नौवें बच्चे थें । अध्यनावस्था पर उनके कालेज के प्रिन्सिपल बेनेमाधव दास के व्यक्तित्व का उन्हें सकारात्मक प्रभाव से तथा आध्यात्मिक सन्त पुज्यपाद विवेकानन्द जी के सम्पूर्ण साहित्य  अध्ययन से जोकि पन्द्रह वर्ष के आयु में ही पढ़ाई कर महाभारत में गीता ज्ञानोपरान्त अर्जुन की पूर्ण तैयारी की तरह "कोलकाता के स्वतंत्र सेनानी"  देशबंधु चित्तरंजन दास की परम सान्निध्यता का सदुपयोग अंग्रेजों के विरुद्ध शंखनाद छेड़ने का संकल्प कर लिये ।  सन 1920 में  आई.सी.एस उत्तीर्ण (चौथे स्थान) होकर भी विदेशी के अधीन के नौकरी को पदत्याग कर दिया । उन्होंने समाज सेवक दल गठन कर " युवक दल" स्थापना कर बाढ़ पीड़ितों की सेवा भी की। भगत सिंह के फांसी को लेकर गान्धीजी से और कांग्रेस से मतभेद के उपरांत नेताजी का पृथक आन्दोलन जब प्रारंभ हुआ तबसे पीछे मूढ़ के देखा भी नहीं बोस ने। सुभाष चन्द्र बोस भारत के आन , वान और शान है । तुम मुझे खुन दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा-----कहकर नारा देने वाले "बोस" की वीर गाथा जितना कहा जाये कम है । 

     जनमानस में इस तरह का प्रचार हैं कि नेताजी का देहावसान ताइहुकु हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटनाग्रस्त  होने के कारण हुआ है । परन्तु सत्यता की पुष्टि में संदेहास्पद है । आततायियों कें षडयंत्र का बली होने का सन्देह भी नकारा नहीं जा सकता ।  ऐसे सच्चे राष्ट्र के पुजारी को परम श्रद्धा के साथ जय हिन्द ।

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